सतविंदर सिंह अरोड़ा
आश्चर्य है की शहर में जिस रफ़्तार से कैफ़े बढ़ रहे हैं उसी रफ़्तार से उनमें युवाओं की भीड़ भी दिख रही है. और कोई खास समय नहीं है जब किसी कैफ़े में भीड़ हो. दोस्त यार, प्रेमी जोड़े गाहे बगाहे कैफ़े में मस्ती करते दिख जाते हैं. चिंताजनक बात यह नहीं है की कैफ़े में खर्च करने को पैसे कहाँ से आ रहे हैं इनके पास वरन आज की इन युवाओं की उर्जा और आज का उर्जावान समय किन चीजों में नष्ट हो रहा है? राष्ट्र्चिन्तन का विषय है की जिस आयु में (ब्रम्हचर्य) पढाई लिखाई, कौशल विकास, परिवार संरक्षण, शारीरिक बल संवर्धन आदि में समय लगाना चाहिए हमारा युवा वर्ग पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में अपनी युवावस्था के आवेग को कॉफ़ी, हुक्का, बियर आदि पीने में नष्ट कर रहा है.
सभी को पता है की भारतीय संस्कृति का हिस्सा अजीनोमोटो, मैदा आदि नहीं हैं लेकिन फिर भी बर्गर, पिज़्ज़ा, नूडल्स, सैंडविचेस, कोक आदि में अपना धन व् उर्जा नष्ट कर रहा है. अपनी संस्कृति से दूर होते बच्चे पता नहीं सुदृढ़ भारत के निर्माण में कैसे अपना योगदान प्रदान करेंगे. फर्राटे से बिना लाइसेंस वाहन दौडाते, कैफ़े में घंटो बिताते (जिस लोग कूल कहते हैं) बच्चे यदि आज नहीं चेते तो आने वाला समय में सिर्फ चर्चा देश ही बन कर रह जायेगा. न खिलाड़ी मिलेंगे न सैनिक. और न ही खाना बनाना सीखेगा कोई. कल्पना कीजिये यदि आज ध्यान नहीं दिया तो ऐसा ही होनेवाला है.