
जुगनू तंबोली
रतनपुर – लोक पर्व छेरछेरा अंचल में पारंपरिक हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। अन्न दान के इस महा पर्व में बच्चों व युवाओं की टोली के साथ किसानों के घर पहुंचे और छेरछेरा घर के धान का हेरते हेरा के उदघोष के साथ धान का दान लिया।

खेती किसानी के कामों से फुरसत पा चुके किसान परिवारों ने पारंपरिक पकवान का भी लुत्फ उठाया। छत्तीसगढ़िया परिवेश में पुस महीने की पूर्णिमा को छेरछेरा का पर्व मनाया जाता है। प्राचीन परंपरा के अनुसार इस दिन बच्चे और युवा किसानों के घर धान की भिक्षा लेने जाते है।

कई जगहों पर युवाओं की टोली ढ़ोल के साथ हाथों में डंडा लेकर डंडा नाच कर धान की मांग करते है। इसी परंपरा का निर्वहन कर आज रतनपुर नगर सहित आसपास के अंचल में बच्चे और युवाओं की टोली उत्साह के साथ छेरछेरा मांगते नजर आए। किसानों के घर पहुंचे लोगों ने सामाजिक सद्भावना के साथ अन्न का दान ग्रहण किया ।
रतनपुर से जुड़ा है छेरछेरा का इतिहास

ऐसी मान्यता है कि कौशल प्रदेश के राजा कल्याण साय मुगल सम्राट जहांगीर की सल्तनत में युद्ध कला का प्रशिक्षण लेने गए थे। उनकी अनुपस्थिति में 8 साल तक महारानी ने राज्य का काम संभाला। जब वे रतनपुर वापस लौटे तो महारानी ने सोने-चांदी के सिक्के बंटवाए। कहा जाता है कि इसी दिन से दान देने की परंपरा शुरू हुई और इस त्योहार को छेरछेरा का नाम दिया गया। सदियों से चली आ रही यह परंपरा अब छत्तीसगढ़ की संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है।
अन्नपूर्णा देवी की होती है पूजा

छत्तीसगढ़ की कृषि प्रधान संस्कृति में हमेशा से दानशीलता की परंपरा रही है। ऐसी धार्मिक मान्यता भी है। कि इस दिन अन्नपूर्णा देवी की पूजा की जाती है। जिसके बाद बच्चों को अन्न दान करने से मृत्यु लोक के सारे बंधनों से मुक्त होकर व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है और शायद ऐसी ही धार्मिक मान्यताएं अब तक इस लोक पर्व को जीवंत बनाएं हुए है।
गाँव के साथ साथ शहरों में भी छेरछेरा की रौनक

वैसे तो यह गांवों का त्योहार है, लेकिन शहर में भी इसकी रौनक देखने मिल जाती है। अब शहर में तो किसी के पास धान होता नहीं तो श्रद्धावश लोग रुपए-पैसे और खाने-पीने की दूसरी चीजें देकर दान करने की परंपरा निभाते हैं और त्योहार की खुशियां मनाते हैं।