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मंगलवार को अपनी कर्मभूमि लवनी में प्रोफेसर खैरा पंचतत्व में विलीन हो गए। दिल्ली विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉक्टर प्रभु दत्त खेरा ने अचानक मार के घने जंगलों में स्थित लमनी को अपनी कर्मभूमि बना लिया था। एक बार वे यहां शैक्षणिक भ्रमण के लिए क्या आए, यहीं के होकर रह गए । कुटिया बनाकर तीन दशक तक उन्होंने यहां आदिवासियों के बीच रहकर उनकी जो सेवा और तपस्या की उससे वे यहां दिल्ली वाले साहब और दिल्ली वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध हो गए। बैगा आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने, उनके स्वास्थ्य और सामाजिक स्तर को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने जो कुछ किया वह अविस्मरणीय है ।
13 अप्रैल 1928 को लाहौर पाकिस्तान में जन्मे प्रोफेसर खेरा चाहते तो आलीशान जिंदगी जी सकते थे, लेकिन जीवन का अंतिम समय उन्होंने अचानकमार के आदिवासियों को समर्पित कर दिया। इन आदिवासियों के लिए उन्होंने अपना परिवार भी त्याग दिया और पूरे जीवन अविवाहित रहे। अपने मूल निवास से हजारों किलोमीटर दूर जंगल में आदिवासियों के साथ ही पूरी जिंदगी गुजार दी। यहां तक कि अपनी जिंदगी की पूरी कमाई भी बैगा आदिवासियों के बच्चों के नाम वसीयत कर दी। अपनी पेंशन की रकम से भी वे रोज बच्चों के लिए चना मुर्रा और बिस्किट लाते और उन्हें प्यार से खिलाते।
1983 में प्रोफेसर खेरा दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों का एक दल लेकर आ अचानकमार पहुंचे थे और यहां के आदिवासियों के रहन-सहन से वे इतने प्रभावित हुए की रिटायर होने के बाद यही चले आए। सोमवार को अपोलो में लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया था। मंगलवार को उनकी कर्म स्थली लमनी में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया। उनके अंतिम संस्कार में सांसद अरुण साव, कलेक्टर डॉक्टर एसएन भूरे, कांग्रेस नेता अटल श्रीवास्तव, महेश दुबे, धर्मजीत सिंह सहित पूरा गांव उमड़ पड़ा। सबने नम आंखों से उन्हें विदाई दी और कहा कि उनकी कमी कोई पूरा नहीं कर सकता।
दिल्ली वाले बाबा तो अब नहीं रहे। उनके बगैर बैगा आदिवासी अनाथ हो चुके हैं। अब असल चिंता यही है कि उन्होंने जिस कार्य की नींव डाली थी उसे आगे कैसे बढ़ाया जाए।