
होली रंगों का त्यौहार भले ही हो, लेकिन अगर रंगों की मस्ती में नगाड़ों की स्वर लहरी शामिल ना हो, तो फिर कैसी होली

बिलासपुर प्रवीर भट्टाचार्य
होली की कुछ खास पहचानों में से एक है नगाड़ा, आज कल के डीजे और अन्य साऊण्ड सिस्टम भी इसका मुकाबला नही कर सकते, इसकी पारम्परिक ध्वनि ही होली का संदेश अपने साथ लेकर आती है। याद किजिये जब शाम ढले फाल्गुनी बयार के साथ कहीं दूर से आती नगाड़ों की आवाज सुनते थे तो किस तरह होली की खुमारी छाने लगती थी। इंसान और संगीत का रिश्ता अटूट है, अगर आपका दिल मासूम है तो फिर आपको बच्चों के रूदन में भी संगीत सुनाई दे सकती है, मां की लोरी, पंक्षियों का कलरव, हवाओं की सरसराहट सबमें संगीत है, तो फिर पर्वो से संगीत का नाता कैसे नही हो। होली भारत का ऐसा लोकपर्व है जिसके साथ पारम्परिक फाग का गहरा संबंध है। और फाग में नगाड़ों का संगत ना हो ऐसा कैसे हो सकता है। अमूमन नगाड़ों का इस्तेमाल अन्य मौकों पर नही किया जाता, होली में फाग पर ताल और संगत यही नगाड़े देते हैं, मामूली से दिखने वाले इन वाद्य यंत्रों की कारीगरी कमाल की होती है, पकी हुई मिट्टी की काली मटकी पर करीने से कसे गये चमड़े और इसके सूखाने की पद्धति पर ही नगाड़ों की खासियत निर्भर करती है।
हर साल खैरागढ़ और डोंगरगढ़ से पुश्तैनी पेशे से जुड़े नगाड़ा के कारीगर बिलासपुर का रूख करते हैं, क्योंकि यहां उन्हे प्यार भी मिलता है और कारोबार भी।
आपके लिये शायद सभी नगाड़े हैं, लेकिन इन्ही नगाड़ो के अपने-अपने नाम भी है, फूल साईज सबसे बड़ा होता है, इसके अलावा मझोलन, डग्गा, पिटवा, झोलवा, टिमरी, टिमटिमी और ताशा की पूरी वैरायटी यहां है, बच्चे हों या बड़े सभी को नगाड़ों का संगत मदमस्त कर देता है।
इन कारीगरों को 6 महीने पहले से ही तैयारी शुरू करनी पड़ती है, तैयार नगाड़ा लेकर ये बिलासपुर पहुंचते हैं तो टूट-फूट का नुकसान भी उठाना पड़ता है, फिर होली तक खानाबदोशो की तरह शनिचरी रपटा के पास दुकान लगाकर ग्राहकों का इंतजार भी करना पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रो में शुरूआती दिनों से ही नगाड़ों की खरीद फरोख्त आरम्भ हो जाती है, लेकिन शहरी इलाको में आखिरी दिनो में ही नगाड़ों की पूछपरख होती है।
नगाड़ों के नाम अलग-अलग हैं और आकार भ।, आकार के साथ इसकी आवाज भी बदलती है, लेकिन नही बदलती है तो इसकी मदमस्त करने वाली थाप। मुख्य धारा की संगीत में नगाड़ों की उपस्थिति ना होने के बावजूद जिस तरह ये लोक परम्पराओं के आधार हैं उससे ही इनकी महत्ता पता चलती है। होली रंगों का त्यौहार भले ही हो, लेकिन अगर रंगों की मस्ती में नगाड़ों की स्वर लहरी शामिल ना हो, तो फिर कैसी होली।